हिंदुस्तान में नदियाँ होती हैं। नदियों के ऊपर पुल होते हैं। पुल इसलिए होते हैं ताकि उन पर चढ़े लोगों को लेकर वे नदी में गिर सकें। गुजरात के मोरबी में ऐसा ही हुआ। सैकड़ों लोगों के साथ पुल नदी में गिर पड़ा। मौत का आँकड़ा अब तक 134 पर पहुँच चुका है। सरकारी संख्या तो बहुत कम होगी, लेकिन इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है! जिनके घर उजड़े हैं वे तो जानते ही हैं। लापरवाही और सरकारी गलती का इससे बड़ा कोई उदाहरण हो नहीं सकता। दरअसल, सरकारों की आदत होती है गलती करना और फिर उस गलती को छिपाने के लिए झूठ पर झूठ बोलना। ग़लतियों पर ग़लतियाँ करते जाना। पहले बिना परीक्षण पुल को लोगों के लिए खोल दिया गया। फिर सौ लोगों की मर्यादा यानी लिमिट के बावजूद पुल पर पाँच सौ लोगों को भेज दिया। क्योंकि कंपनी को टिकट के पैसे मिल रहे थे। जब टूट गया तब मौतों की संख्या कम बताना। … जब दबाव बना। केंद्र सरकार का। होने वाले चुनाव का। तो एफआईआर और गिरफ़्तारी का सिलसिला शुरू कर दिया।

ठीक है दोषियों के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए। गिरफ़्तारी भी होनी चाहिए। लेकिन गिरफ़्तार किन्हें किया? जिन नौ लोगों को गिरफ्तार किया उनमें दो मैनेजर, रिपेयरिंग का काम करने वाले दो मज़दूर, तीन सिक्योरिटी गार्ड और दो टिकट क्लर्क शामिल हैं। 134 लोगों की मौत के बाद सरकार की गंभीरता देखिए कि जाँच कमेटी ने पच्चीस मिनट में अपना काम पूरा कर लिया। पुल का संचालन करने वाले ओरेवा ग्रुप और रिनोवेशन करने वाली देव प्रकाश सॉल्यूशन का एफआईआर में नाम तक नहीं है। दरअसल, मौतों से किसी सरकार, किसी नेता को कोई दर्द नहीं हो रहा, वास्तव में वहाँ असल दोषियों को बचाने का खेल चल रहा है।

मोरबी नागर पालिका का कहना है कि ओरेवा कंपनी ने अपनी मर्ज़ी से पुल को खोल दिया था। फ़िटनेस सर्टिफिकेट लिया ही नहीं गया। नगर पालिका की कोई परमिशन भी नहीं ली थी। अगर पालिका की परमिशन ही नहीं ली और पुल खोलकर पाँच सौ लोग उस पर चढ़ा दिए गए तो नगर पालिका क्या सो रही थी? किसके इशारे पर कार्रवाई नहीं की गई? कौन नेता, कौन मंत्री था जिसके दम पर बिना परमिशन यह सब हो रहा था? इसकी जाँच कौन करेगा? सरकार का तो इसमें भरोसा ही नहीं है। वह तो पच्चीस मिनट में जाँच की लीपापोती करके हादसे को मज़ाक़ बनाने पर तुली हुई है। लोग किस पर भरोसा करें? ऐसे बंद पुलों को चालू करने से पहले लोड टेस्टिंग कराई जाती है। वह भी नहीं कराई गई! क्यों? और यह सब देखते हुए, जानते- बूझते हुए, अगर एफआईआर में संचालन करने वाली कंपनी और रिनोवेशन करने वाली कंपनी के नाम नहीं हैं तो साफ़ समझ में आता है कि सरकार इन कंपनियों को बचा रही है। लगभग दो सौ लोगों की मौतों पर भी इस तरह का रुख़ अपनाने वाली सरकार की मंशा कितनी पाक- साफ़ है यह तो पता चल ही जाता है। ऐसी किसी भी मंशा को झकझोरने का समय आ गया है।