कर्ज में डूबा अमेरिका कंगाल होने से कुछ ही दिन दूर है। राष्ट्रपति जो बाइडेन इतने उलझे हैं कि उन्होंने 24 मई की ऑस्ट्रेलिया विजिट कैंसिल कर दी, जहां क्वाड मीटिंग होनी थी। वो G-7 शिखर सम्मेलन में हिस्सा लेने जापान के हिरोशिमा पहुंचे थे। वहीं चारों राष्ट्र प्रमुखों ने मिलकर क्वाड की बैठक भी कर ली।
ऐसे में 3 बड़े सवाल हैं। पहला- आखिर दुनिया का सबसे ताकतवर देश और दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था इतने बड़े कर्ज में फंस कैसे गई? दूसरा- बाइडेन ऐसी क्या कोशिश कर रहे हैं कि उन्हें ऑस्ट्रेलिया और पापुआ न्यू गिनी का दौरा रद्द करना पड़ा? तीसरा- अगर अमेरिका कर्ज डिफॉल्ट हो जाता है तो इसका भारत जैसे अन्य देशों पर क्या असर पड़ेगा? भास्कर एक्सप्लेनर में इन्हीं सवालों के जवाब जानेंगे।
अमेरिका में अभी जो हालात हैं, उसे समझने के लिए हमें अपने घर के बजट को समझना होगा…
सोचिए, अगर आपके घर में कमाई कम और खर्च ज्यादा होता है तो क्या होता है? ऐसी स्थिति में आप खर्च में कटौती करके बचत करने की कोशिश करते हैं, लेकिन अगर खर्च बहुत जरूरी हों तो कर्ज लेकर उसकी भरपाई करते हैं।
पिछले 50-60 सालों से अमेरिका में यही होता आया है। यानी अमेरिकी सरकार टैक्स वगैरह से होने वाली कमाई से ज्यादा खर्च करती आई है। इस खर्च को पूरा करने के लिए हर बार अमेरिकी सरकार अपने इकबाल के बूते दुनिया भर से कर्ज लेती रही है।
अमेरिका में सरकारी आमदनी और खर्चों का हिसाब ट्रेजरी डिपार्टमेंट देखता है। यही ट्रेजरी डिपार्टमेंट दूसरे देशों या कंपनियों से कर्ज बॉन्ड के जरिए लेती है। ये एक तरह का दस्तावेज है।
मान लीजिए किसी कंपनी ने अमेरिका से 1000 का बॉन्ड 10 साल के लिए 10% ब्याज के दर पर खरीदा। अब उस कंपनी को अमेरिका से हर साल 100 रुपए इंट्रेस्ट मिलेंगे। ये ब्याज कंपनी को अगले 10 साल के लिए मिलेंगे। 10 साल बाद आप इस बॉन्ड को 1000 में बेचकर वह कंपनी अपना पैसा वापस ले सकती है।
अमेरिका पर भरोसे के चलते दुनिया भर के निवेशक अमेरिकी बॉन्ड खरीदकर उन्हें कर्ज देने से पीछे नहीं हटते। अमेरिकी सरकार काफी ज्यादा कर्ज न ले इसके लिए 1917 में यहां एक कानून बना है। इसके तहत कर्ज जुटाने का एक तय सीमा है। अमेरिका उस सीमा को क्रॉस चुका है। ऐसे में इस सीमा को बढ़ाए बिना अमेरिकी सरकार कर्ज नहीं ले सकती है।
पहले भी ऐसा हुआ है, लेकिन जब भी अमेरिका के सामने ऐसा संकट आता है तो सरकार अमेरिकी संसद यानी कांग्रेस में एक प्रस्ताव पारित करवाकर इस सीमा को बढ़वा लेती है। 1960 से अब तक 78 बार अमेरिकी संसद ने इस सीमा को बढ़ाया है।
यही काम बाइडेन करना चाहते हैं, लेकिन अपर हाउस में बाइडेन को बहुमत नहीं है। इस प्रस्ताव को पास कराने के लिए उन्हें विपक्षी दलों के मदद की जरूरत होगी। यही लॉबिंग करने के लिए बाइडेन को समय चाहिए और इसी वजह से उन्होंने क्वाड जैसी जरूरी बैठक में जाने से इनकार कर दिया है।
भारत के 10 साल के GDP के बराबर अमेरिका पर कर्ज
अमेरिकी सरकार पर कर्ज लेने की सीमा 31.46 ट्रिलियन डॉलर तय है। ये पैसा 2,600 हजार लाख करोड़ रुपए से भी ज्यादा होता है। फिलहाल भारत की इकोनॉमी 3.5 ट्रिलियन डॉलर की है। यानी भारत के लोग 10 साल में सामान बनाकर और नौकरी करके जितना कमाते हैं, उतना अमेरिका पर कर्ज है।
अमेरिकी सरकार को कर्ज देने के लिए चीन और जापान के इनवेस्टर्स ने 9% बॉन्ड खरीद रखे हैं। एक दिलचस्प बात तो ये है कि खुद अमेरिका का केंद्रीय बैंक भी अमेरिकी सरकार को कर्ज देता है। इस समय सबसे ज्यादा 36% बॉन्ड तो अमेरिका ने खुद ही खरीद रखा है। हालांकि, अमेरिका के केंद्रीय बैंक में पैसा है, लेकिन कर्ज की सीमा पार होने की वजह से सरकार यहां से भी पैसा नहीं ले सकती है।
यही वजह है कि पिछले सप्ताह अमेरिकी ट्रेजरी विभाग के सचिव जेनेट येलेन ने अमेरिकी संसद के अध्यक्ष को पत्र लिखकर कहा कि ट्रेजरी के खजाने में पैसे की कमी है। अगर जल्द कर्ज लेने की सीमा नहीं बढ़ाई गई तो हम जून महीने में सरकारी कर्मचारियों का भुगतान तक नहीं कर पाएंगे।
कंगाल होने से बचने के लिए अमेरिका के पास 3 रास्ते हैं…
जैसे भारत में संसद के दो सदन लोकसभा और राज्यसभा होती है। वैसे ही अमेरिकी में सीनेट वहां के संसद की ऊपरी प्रतिनिधि सभा है और हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव कांग्रेस की निचली प्रतिनिधि सभा है।
सीनेट में बाइडेन की पार्टी के सांसदों की संख्या कम है। ऐसे में विपक्षी दलों को बाइडेन मना रहे हैं। ट्रंप की पार्टी के सांसदों की मांग है कि बाइडेन सरकार खर्च कम करे। तभी वो कर्ज बढ़ाने का समर्थन देंगे।
वहीं, सरकार का कहना है कि अगर हमने खर्च कम किया तो इससे गरीब और आमलोगों को नुकसान होगा। ऐसे में अब सरकार के पास आगे के तीन रास्ते है…
1. इमरजेंसी फंड: अमेरिका का ट्रेजरी डिपार्टमेंट इमरजेंसी फंड से पैसा निकालकर सरकार को मदद कर सकता है। हालांकि, इससे सिर्फ कुछ दिनों के लिए समस्या टलेगी। सरकार को संसद से ही कोई रास्ता निकालना होगा।
2. कांग्रेस यानी अमेरिकी संसद से मंजूरी मिल जाए: अगर अमेरिकी संसद के दोनों सदन से कर्ज की सीमा बढ़ाने वाली प्रस्ताव पास हो जाती है तो समस्या खत्म हो जाएगी।
3. अमेरिका के संविधान में 14वां संविधान संशोधन: इस संशोधन के जरिए राष्ट्रपति संसद को नजरअंदाज करके फैसला ले सकते हैं। यह नियम कहता है कि अमेरिकी जनता के कर्ज की वैधता पर सवाल खड़े नहीं किया जा सकता है। हालांकि, इस फैसले को विपक्ष कोर्ट में चुनौती जरूर दे सकता है।
कर्ज की सीमा नहीं बढ़ाने से अमेरिका पर 4 मुख्य असर पड़ेंगे
खर्च चलाने वाला ट्रेजरी विभाग ये तय नहीं कर सकता है कि किससे कितना टैक्स लेना है और कर्ज की सीमा कितनी बढ़ानी है। ऐसे में अमेरिकी सरकार कर्ज की सीमा नहीं बढ़ा पाएगी तो इससे ये 4 असर मुख्य तौर पर देखने को मिलेंगे…
1. सरकार कर्मचारियों को वेतन नहीं दे पाएगी।
2. सरकार को जन कल्याण के कामों के लिए पैसा नहीं मिल पाएगा।
3. सरकार दूसरे देशों या कंपनियों के कर्ज नहीं लौटा पाएगी।
4. इन सबके वजह से अमेरिका का शेयर बाजार 20% तक गिर सकता है। इससे अमेरिकी GDP में 4% तक गिरावट आ सकती है।
अमेरिका पर इतना कर्ज बढ़ने की 5 मुख्य वजहें हैं…
1. 1980 के दशक में अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने टैक्स में कटौती की। इससे सरकार की कमाई कमी और सरकार को रिकॉर्ड कर्ज लेने की जरूरत महसूस हुई।
2. 2000 के दशक में आई मंदी से निकलने के लिए अमेरिका को भारी कर्ज लेना पड़ा था।
3. 2001 और 2003 में अमेरिकी सरकार ने टैक्स में कटौती की। ऐसे में खर्च चलाने के लिए सरकार को कर्ज लेना पड़ा।
4. 2017 में एक बार फिर से ट्रंप सरकार ने टैक्स में कटौती की।
5. 2020 में कोरोना महामारी ने अमेरिका की इकोनॉमी पर बुरा असर डाला। इसकी वजह से सरकार की आमदनी कम हो गई और कर्ज लेकर सरकार को खर्च चलाना पड़ा।
ये वो मुख्य वजहे हैं, जिसकी वजह से अमेरिका पर कर्ज लगातार बढ़ता ही जा रहा है।
अगर बाइडेन कर्ज की सीमा नहीं मानते हैं तो इससे क्या होगा?
अगर बाइडेन सरकार इस कानून को तोड़ती है तो आने वाले समय में अमेरिका की इकोनॉमी पर बुरा असर पड़ेगा। अमेरिकी सरकार के लिए कर्ज तोड़ना मुश्किल हो जाएगा। भले ही सरकार अभी डिफॉल्ट न हो, लेकिन आने वाले समय में कर्ज इतना ज्यादा हो जाएगा कि सरकार के लिए देश चलाना मुश्किल हो जाएगा।
इससे अमेरिकी बाजार टूट जाएगा। लोगों को डॉलर से भरोसा खत्म हो जाएगा। इन्वेस्टर अमेरिका से पैसा निकालने लगेंगे। सीएफआर ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि ऐसा हुआ तो अमेरिका में 30 लाख से ज्यादा लोग बेरोजगार हो जाएंगे।
अमेरिका में जो हो रहा है, इसका भारत पर क्या असर पड़ सकता है?
अगर अमेरिकी सरकार ने जल्द इस समस्या का हल नहीं किया तो भारत समेत दुनियाभर में इसका असर पड़ना तय है। इससे पहले 2001 और 2003 में अमेरिकी सरकार ने टैक्स में कटौती की थी। इसके बाद अमेरिकी ट्रेजरी के पास पैसे की कमी हो गई थी। इस समय भी संसद ने कर्ज की सीमा बढ़ाकर देश को डिफॉल्ट होने से बचाया था। इस साल अमेरिका में मंदी आ गई थी।
इसका असर दुनिया भर के बाजारों में दिखा था। 2008 में अमेरिका में आई मंदी की वजह से यहां बेरोजगारी दर 10% तक पहुंच गई। इस मंदी से बचने के लिए भारत सरकार को 3 राहत पैकेज जारी करने पड़े थे। अमेरिका का बिजनेस दुनिया के ज्यादातर बड़ी इकोनॉमी वाले देशों से जुड़ी हुई है। ऐसे में अमेरिका में मंदी आने पर दुनिया भर के लिक्विडिटी पर इसका असर पड़ता है।
इसके अलावा दुनिया भर के केंद्रीय बैंकों में रिजर्व रखे गए पैसे का 60% हिस्सा अमेरिकी डॉलर है। ऐसे में डॉलर की वैल्यू गिरा तो दुनियाभर के देशों की इकोनॉमी पर इसका असर पड़ना तय है।
अब आखिर में जानिए दुनिया में सबसे ज्यादा कर्ज लेने वाले देश कौन हैं…
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