नेताओं की संपत्ति में बेइंतहा इज़ाफ़ा होता है हर साल। हर पाँच साल में वे अपनी संपत्ति का ब्योरा तो चुनाव आयोग को देते हैं, लेकिन आयोग संपत्ति के इन आँकड़ों को सार्वजनिक करने के सिवाय कुछ नहीं कर पाता।
जब वोट चाहिए होते हैं, चुनाव जीतना होता है, तो बड़े-बडे वादे करते हैं। जैसे- बंजर ज़मीन पर फसल लगवा देंगे। पेड़ लगवा कर उनकी डालियों पर फूल महका देंगे। पहाड़ों को क़रीने से सजा देंगे। उन पर चाँद लटका देंगे। सबके सिरों पर नीला आकाश फैला देंगे। सितारों को रोशन करेंगे, हवाओं को गति देंगे। फुदकते पत्थरों तक को पंख लगवा देंगे। … और तो और, सड़क पर डोलती परछाइयों को ज़िंदगी दे देंगे… और जाने क्या- क्या! जीतने के बाद अपनी संपत्ति बढ़ाने के सिवाय ज़्यादातर नेताओं को कुछ सूझता ही नहीं।
होना तो यह चाहिए कि आय से ज़्यादा संपत्ति जिसकी भी बढ़े, उसे चुनाव लड़ने ही नहीं दिया जाए। अयोग्य ठहरा दिया जाए। दूसरी तरफ संपत्ति घोषित करने में भी गई तरह की गलतियाँ रहती हैं। रिश्तेदारों, जान- पहचान वालों के नाम फैक्ट्रियां, भवन, धंधे होते हैं, किसी एजेंसी को इसका पता भी लगाना चाहिए। ऊपर से खुद ही प्रस्ताव ला-लाकर अपनी तनख़्वाह खुद ही बढ़ा लेते हैं। भत्ते भी। अपने चुनाव क्षेत्र में जाने का भी इन्हें भत्ता मिलता है। जाते कितने हैं, सब जानते हैं।
आम आदमी की हालत जानने में इनकी कोई रुचि नहीं होती। नेताओं के इसी स्वभाव या आदत ने आम आदमी को ख़ामोश कर दिया है। वो कामना करता है कि मेरी ख़ामोशी सुनने से पहले ये तमाम नेता बहरे हो जाएँ तो अच्छा है। बड़ी बर्दाश्त है इस आम आदमी में। कहने को उसके पैरों में रास्ता और सिर पर आसमाँ छोड़ा है बस। और कुछ नहीं।
चुनाव के वक्त तो क्षेत्र में आने के वादे इस तरह करते हैं जैसे यहीं पास ही बने रहेंगे पूरे पाँच साल। आएँगे। वक्त जब भी मिलेगा। नहीं होगा वक्त, तब भी आएँगे। ज़रूर आएँगे। जैसे जिस्म की सारी ताक़त आ जाती है हाथों में। जैसे लहू आता है रंगों में। जैसे आँच आती है चूल्हे में। इस तरह आएँगे, लेकिन आता कोई नहीं है। हाल जानता कोई नहीं है।
कभी- कभार किसी ने हालात सुना भी दिए तो इधर के कान से सुना और उधर के कान से निकाल दिया। लोग चुप हो जाते हैं। यह सोचकर कि फ़ौलाद के बूट होते हैं इन सियासतदानों के। आख़िर चींटियों का रोना भला कौन देखता- सुनता है! कुल मिलाकर, राजनीति के इस दुरूह चक्रव्यूह में नेताओं की अक्षोहिणी सेनाओं के बीच आम आदमी अभिमन्यु की तरह घिरा हुआ है। बार-बार आते चुनावी मौसम से वो ऊब चुका है।
चुनावी मौसम से याद आई एक मशहूर कवि की ये कविता…
मुझे अच्छा नहीं लगता ये मौसम,
हमारी आँखों में जो धूल झोंके!
हमारी लड़कियों के लहंगे पकड़े,
हमारे पेड़ों पर कोड़े लगाए,
और वे चीखा करें!
मुझे नफ़रत है इस मौसम से, जिसमें,
झुकानी पड़ती है अपनी राय,
नेताओं की चलती हवा पर।।