आज यानी 1 नवंबर, मंगलवार को इजराइल में वोटिंग है। यहां के लोग तीन साल में 5वीं बार सरकार चुनने के लिए वोट डाल रहे हैं। इजराइल की कनेसेट (संसद) में कुल 120 सदस्य होते हैं और सरकार बनाने के लिए किसी भी दल या गठबंधन के लिए 61 सदस्यों का समर्थन जुटाना जरूरी है।
1996 से 99 और 2009 से 2021 तक 15 साल इजराइल के प्रधानमंत्री रह चुके बेंजामिन नेतन्याहू फिर सत्ता में वापसी करने की कोशिश कर रहे हैं। चुनावी सर्वे भी नेतन्याहू को मामूली बढ़त दिखा रहे हैं।
इजराइल के लोगों को अब तय करना है कि वे फिर नेतन्याहू को सत्ता सौंपेंगे या फिर वामपंथी, लिबरल, कट्टरपंथी और अरब पार्टियों के बेमेल गठबंधन की वापसी कराएंगे। हालांकि, अब तक हुए सभी सर्वे से एक बात साफ है कि किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिल रहा है।
नेतन्याहू के भारत से अच्छे रिश्ते रहे हैं। 5 साल पहले नेतन्याहू प्रधानमंत्री रहते भारत आए थे। तब PM नरेंद्र मोदी प्रोटोकाल तोड़कर उन्हें रिसीव करने एयरपोर्ट गए थे। इसी साल वे इजराइल दौरे पर गए थे। मोदी पहले भारतीय प्रधानमंत्री थे, जिन्होंने इजराइल की यात्रा की थी। दोनों एक दूसरे को दोस्त बता चुके हैं।
नेतन्याहू को हमेशा कट्टर यहूदियों का समर्थन मिला, इस बार स्थिति साफ नहीं
नेतन्याहू कट्टर यहूदियों के समर्थन से 15 साल तक सरकार चलाते रहे। 2019 में भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरने के बाद उनकी साख कमजोर हुई और आगे चलकर उन्हें प्रधानमंत्री का पद छोड़ना पड़ा।
अब सबसे बड़ा सवाल है कि क्या अब भी इजराइल के कट्टर यहूदी ग्रुप उनका समर्थन करेंगे, जैसे पहले करते रहे हैं?
इजराइल में अल्ट्रा ऑर्थोडॉक्स दलों को हेरेडिम कहा जाता है। ये हमेशा से नेतन्याहू के गठबंधन का समर्थन करते रहे हैं। जून 2021 में नेतन्याहू की सरकार गिरी तो ये दल भी सत्ता से बाहर हो गए।
इजराइल में धर्म की शिक्षा लेने वाले यहूदी युवाओं को सब्सिडी मिलती है और कट्टर यहूदी ग्रुप अपनी पहचान बचाए रखने के लिए इसी तरह की सरकारी मदद पर निर्भर रहते हैं।
इजराइल डेमोक्रेसी इंस्टीट्यूट (IDI) के मुताबिक, अगर गेंट्ज की पार्टी को अयालेत शाकेद जैसी कट्टरपंथी पार्टियों से 20-30 हजार समर्थक भी मिल जाते हैं तो ये चुनाव में गेमचेंजर साबित हो सकते हैं।
हाल में नेतन्याहू से पत्रकारों ने पूछा कि क्या अब भी हेरेडिम उनका समर्थन करेंगे तो उन्होंने जवाब दिया- वे कहते हैं कि नहीं करेंगे, लेकिन वे विपक्ष में भी नहीं बैठना चाहेंगे। मुझे लगता है कि चुनाव के नतीजों के आधार पर वे अपने विकल्पों पर विचार करेंगे।
हेरेडिम इजराइल को कट्टर यहूदी राष्ट्र बनाना चाहते हैं। इजराइल में सभी युवाओं के लिए सेना में सर्विस देना अनिवार्य है, हेरेडिम अपने युवाओं के लिए इसमें भी छूट चाहते हैं।
एक्सपर्ट्स के मुताबिक उनकी सबसे बड़ी समस्या यही है कि सत्ता से बाहर रहते हुए वे ‘अपनी परंपराओं और धार्मिक शिक्षा’ को मजबूत नहीं कर सकते, ऐसे में उन्हें सत्ता चलाने वाले गठबंधन के साथ ही जाना पड़ सकता है।
अरब विरोधी नस्लवादी यहूदी नेताओं की ताकत बढ़ी
कभी मुख्यधारा की राजनीति में हाशिए पर रहे नस्लवादी यहूदी नेता इतामार बेन गवीर अब नेतन्याहू के समर्थक हैं। वे चुनाव में तीसरी सबसे बड़ी ताकत बनकर उभर सकते हैं। उनकी पार्टी बड़ी तादाद में युवाओं को अपनी तरफ खींच रही है।
बेन गवीर खुलेआम फिलिस्तीनियों पर गोली चलाने और उन्हें कुचल देने की धमकियां दे चुके हैं। सत्ता में आने पर उन्होंने ‘देशद्रोही अरब’ लोगों को देश से निकालने और ‘दुश्मन फिलिस्तीनी’ नागरिकों को इजराइल से बाहर करने के लिए मिनिस्ट्री बनाने का वादा किया है।
इजराइल की नेशनल मिलिट्री सर्विस से बेन गवीर को चरमपंथी समूहों से जुड़े होने के कारण निलंबित कर दिया गया था। 2007 में उन्हें आतंकवादी समूहों का साथ देने और नस्लवाद को बढ़ावा देने का दोषी पाया गया था।
ऐसे ही एक और कट्टरपंथी यहूदी नेता बाजालेल स्मोटरिच को भी जबरदस्त समर्थन मिल रहा है। मौजूदा रक्षा मंत्री बेनी गेंट्ज का कहना है कि अगर गवीर और स्मोटरिच जैसे नेता सत्ता का हिस्सा बनते हैं तो वे इजराइल को आग लगा देंगे।
अरब अल्पसंख्यकों के लिए बहुत कुछ दांव पर
इजराइल में अरब मूल के करीब 19 लाख लोग रहते हैं। ये कुल आबादी का लगभग 21% हैं। राजनीति में इनकी हिस्सेदारी न के बराबर है। इजराइल में उनकी हैसियत ‘दूसरे दर्जे’ के नागरिकों जैसी ही है।
इजराइली चुनावों में हिस्सा ले रही अरब पार्टियों का पहला मकसद नेतन्याहू को सत्ता से बाहर रखना है। नेतन्याहू खुले तौर पर फिलिस्तीन विरोधी कट्टरपंथियों के साथ हैं। इतामार बेन गवीर जैसे नस्लवादी नेता की बढ़ती ताकत भी अरब मूल के लोगों के लिए बड़ी चुनौती होगी।
ऐसे में चुनाव से पहले ये पार्टियां अरब मूल के लोगों में मतदान प्रतिशत बढ़ाने के लिए पूरा जोर लगा रही हैं, ताकि कट्टरवादी समूहों को सत्ता पाने से रोका जा सके।
वहीं एक्सपर्ट्स का मानना है कि अरब मूल के लोगों में राजनीति को लेकर घोर निराशा है। उन्हें लगता है कि इजराइल में सत्ताधारी दल नस्लवाद को चुनौती देने में नाकाम रहे हैं। ऐसे में आशंका जाहिर की जा रही है कि अरबों की मतदान में हिस्सेदारी 40%से भी कम रह सकती है। पिछले चुनावों में ये 44.6% थी।
अरब राष्ट्रवादी पार्टी हादाश ताल के नेता अहमद तीबी ने कहा है कि लोगों को ये समझाना बहुत मुश्किल है कि कुछ बदलाव हो सकता है। हमें बहुत मेहनत करनी है। सिर्फ 35 हजार वोट, सिर्फ एक सीट बहुत बड़ा फर्क पैदा कर सकती है।
जून 2021 में इजराइल में सत्ता बदली, तब राम पार्टी (Ra’am Party) पहली अरब पार्टी थी, जो किसी इजराइली सत्ताधारी गठबंधन का हिस्सा बनी। कट्टरवादी नेफ्ताली बेनेट और फिर बाद में लिबरल येर लैपिड इस सरकार के प्रधानमंत्री थे। ये गठबंधन बहुत लंबा नहीं चल सका और शिक्षा और रोजगार में अरबों को बराबरी का मौका देने के वादे पूरे नहीं हो पाए।
इजराइली चुनावों में तीन प्रमुख अरब दल हिस्सा लेते हैं। ये हैं हादाश ताल, राम (यूनाइटेड अरब लिस्ट) और बालाड। इस बार अरब दलों में फूट भी पड़ गई है। सितंबर में उम्मीदवारों के नाम घोषित करने की समय सीमा खत्म होने से ठीक पहले बालाड ने अकेले चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया था।
इजराइल की संसद में जगह पाने के लिए किसी भी पार्टी को कम से कम 3.25% वोट हासिल करने होते हैं। फूट पड़ने के बाद बालाड के लिए ये आंकड़ा हासिल करना बहुत मुश्किल होगा और यह पार्टी सदन से बाहर हो सकती है।
चुनावी सर्वों के मुताबिक, हादाश ताल 4 सीटें हासिल करने के लिए भी संघर्ष कर सकती है। अगर अरब दल कमजोर होते हैं तो नेतन्याहू के सत्ता हासिल करने की संभावना बढ़ जाएगी।
यही वजह है कि कार्यवाहक प्रधानमंत्री येर लैपिड ने अरब मतदाताओं से बड़ी संख्या में वोट डालने की अपील की है, ताकि नेतन्याहू को सत्ता से बाहर रखा जा सके। राम (यूनाइटेड अरब लिस्ट) पार्टी के नेता चुनावों से पहले बार-बार दोहरा रहे हैं कि भविष्य में किसी भी गठबंधन के लिए नेतन्याहू विकल्प नहीं हैं।
चुनावों में फिलिस्तीन के लोग कहीं नहीं
फिलिस्तीनी मानवाधिकार समूहों का कहना है कि इजराइल के चुनावी लोकतंत्र का एक ही मकसद है- फिलिस्तीनी अरब लोगों का दमन और यहूदियों का वर्चस्व बनाना।
फिलिस्तीनी मानवाधिकार संगठन ‘द इजराइली इन्फॉर्मेशन सेंटर फॉर ह्यूमन राइट्स इन ऑक्यूपाइड टेरीटरीज’ या बेतसेलेम ने चुनाव से ठीक पहले कहा कि इजराइली सत्ता एक ही सिद्धांत पर चल रही है- एक समूह यहूदी का दूसरे समूह फिलिस्तीनी पर वर्चस्व स्थापित करना।
बेतसेलेम का कहना है कि इजराइल की सरकार इन लोगों का जीवन तय करती है, लेकिन उन्हें चुनावों में हिस्सा लेने या वोट डालने का अधिकार नहीं है। फिलिस्तीनी क्षेत्रों में रहने वाले ये लोग फिलिस्तीन के प्रशासन में रहते हैं। फिलहाल इन इलाकों पर हमास और दूसरे चरमपंथी गुटों का नियंत्रण है।
वेस्ट बैंक का प्रशासन फिलिस्तीनी अथॉरिटी के पास है। यहां बड़ी तादाद में ऐसे यहूदी रहते हैं, जिन्हें इजराइल ने बसाया है। वे इजराइल के चुनावों में हिस्सा लेते हैं। हालांकि यहां के अरब मूल के लोग फिलिस्तीनी प्रशासन के अंडर आते हैं।
बेतसेलेम का कहना है कि फिलिस्तीनी प्रशासन के हाथ में बहुत कुछ नहीं है और जो कुछ भी वह करता है, उसके लिए उसे इजराइल की मंजूरी लेनी होती है।
वहीं पूर्वी यरूशलम के लोग सैद्धांतिक तौर पर इजराइल के नागरिक बन सकते हैं और चुनावों में हिस्सा ले सकते हैं। हालांकि इसकी प्रक्रिया बहुत मुश्किल है और आमतौर पर यहां रहने वाले फिलिस्तीनी लोगों को इजराइल की नागरिकता नहीं मिल पाती।
ये एक्सक्लूसिव स्टोरीज भी पढ़िए...
1. 7 महीने से बेहोश महिला ने बिटिया को जन्म दिया, नॉर्मल डिलीवरी से डॉक्टर हैरान
23 साल की शाफिया। शादी के बाद सिर्फ कुछ दिन पति के साथ रह पाईं। करीब 7 महीने पहले एक्सीडेंट के बाद उन्हें दिल्ली के एम्स में एडमिट कराया गया। अब शाफिया एक बच्ची की मां हैं। वह आंखें तो खोल पाती हैं, लेकिन बोलती-समझती कुछ नहीं। उनकी डिलीवरी कराने वाले डॉक्टर के 22 साल के करियर में यह ऐसा पहला मामला है।
पढ़ें पूरी खबर...
2. 4 शादियों के लिए मुस्लिम बना प्रोड्यूसर कमल किशोर:पत्नी बोली- लात-घूंसों से पीटता है
'वह मुझे बच्चों के सामने चप्पलों और लात-घूंसों से पीटता है, बेल्ट से भी मारता है। मेरा सिम तोड़ दिया और खर्च के लिए पैसे नहीं देता।' ये बताते हुए बॉलीवुड प्रोड्यूसर कमल किशोर मिश्रा की पत्नी यास्मीन फूट-फूट कर रोने लगती हैं। कमल किशोर को पुलिस ने यास्मीन पर कार चढ़ाने के आरोप में गिरफ्तार किया है। यास्मीन की शिकायत के 9 दिन बाद ऐसा हुआ।
पढ़ें पूरी खबर...