भारतीय राजनीति में किंगमेकर और किंग की लम्बी कहानियां हैं। कई महान व्यक्तित्व किंगमेकर रहे, लेकिन कभी किंग नहीं बने। जो बने, वे आखिरकार विफल हुए। किंग बनकर विफल होने वालों में उद्धव ठाकरे सबसे ताजा उदाहरण हैं।
जिन महान लोगों ने किंगमेकर होते हुए भी कभी सत्ता का मोह नहीं किया, उनमें चाणक्य सबसे पहले और चर्चित उदाहरण हैं। एक साधारण शिक्षक होकर उन्होंने मगध के राजा धनानंद को सत्ता से उखाड़ फेंका, लेकिन कभी खुद सत्ता में नहीं आए। अपने शिष्य चंद्रगुप्त को राजा बनाया।
दूसरे और तीसरे महान व्यक्तित्व थे गांधी जी और जयप्रकाश नारायण। गांधीजी ने वर्षों अपने अहिंसक आंदोलन से अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया और आखिरकार अंग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ा। गांधी जी चाहते तो सत्ता प्रमुख बन सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा सोचा तक नहीं।
यही महानता दिखाई जेपी ने। सिंहासन खाली करो कि जनता आती है…। यही नारा था उनका। उनके सामाजिक आंदोलन ने नामुमकिन काम कर दिखाया। कांग्रेस, खासकर श्रीमती इंदिरा गांधी को सत्ता से बेदखल कर दिया, लेकिन खुद कभी सत्ता में नहीं आए।
जेपी ने सिंहासन खाली करो कि जनता आती है..का नारा बुलंद किया। उन्होंने अपने आंदोलन से इंदिरा गांधी को सत्ता से बेदखल कर दिया, लेकिन खुद कभी सत्ता में नहीं आ पाए।
इसके बाद आज-कल की राजनीति में भी ऐसे उदाहरण हैं। RSS, खुद बाला साहेब ठाकरे और कांशीराम इनमें प्रमुख हैं। इन्होंने भी सरकारें बनाईं, गिराईं पर सीधे रूप में कभी स्वयं सत्ता में नहीं रहे।
विफल किंगमेकर्स भी कम नहीं हैं। चंद्रशेखर, एचडी देवगौडा और आईके गुजराल भी राजनीतिक विफलता के शिकार हुए। चंद्रशेखर की जनता पार्टी में तो दो ही सांसद थे, फिर भी वे प्रधानमंत्री बन बैठे। हश्र वही हुआ। राजीव गांधी के निवास पर हरियाणा के दो सिपाहियों को जासूसी करते देख कांग्रेस गुस्सा गई और चंद्रशेखर को सत्ता से जाना पड़ा।
देवगौडा और गुजराल का भी यही हाल हुआ। डेढ़-दो साल से ज्यादा कोई नहीं चल पाया। यही उद्धव के साथ हो रहा है। उनके पिता बाला साहेब ने कभी सीधे सत्ता हाथ में नहीं ली, लेकिन हमेशा सरकार कहलाए। ठाकरे सरकार ही कहा जाता रहा। परम्परा को तोड़कर उद्धव ने बेमेल गठबंधन किए और नतीजा सामने है।
एच डी देवगौडा और आई के गुजराल भी प्रधानमंत्री बने लेकिन डेढ़-दो साल से ज्यादा कोई सरकार नहीं चला पाया। कुछ यही हाल 2 सांसदों वाले पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर का भी था।
दरअसल राजनीति में भी बंद मुट्ठी ही लाख की होती है। एकनाथ शिंदे ने केवल शिवसेना को नहीं तोड़ा, बल्कि ठाकरे सरकार वाली जो वर्षों पुरानी ठसक थी, उसे भी नेस्तनाबूद कर दिया है। पहले जब कभी भी ऐसा होता था तो उग्र शिवसैनिक तोड़-फोड़ मचा देते थे, लेकिन इस बार ऐसा कुछ नहीं हुआ।
समझा जा सकता है कि बेमेल गठबंधन के पक्ष में वह आम शिव सैनिक भी नहीं था, जो सत्ता में न रहते हुए भी ठाकरे परिवार को ही सरकार मानता था। यही वजह है कि एक-डेढ़ दिन की उठापटक में ही ठाकरे पक्ष ने हथियार डाल दिए हैं। वह मन से मान चुका है कि अब सरकार का जाना तय है।