इतिहास गवाह है- शिवाजी की सेना ने कभी सूरत पर धावा बोला था, आज सूरत से शिवसेना की सरकार पर धावा बोला जा रहा है। जैसे रानी कैकेयी कोपभवन में जा बैठी थीं, वैसे ही शिवसेना के कुल 55 में से 33 शिवसेना विधायक और 7 निर्दलीय सूरत के एक होटल में जा बैठे हैं। महाराष्ट्र सरकार संकट में है।
राजनीति में यह कोई नई बात नहीं है। भारतीय राजनीति में मसखरों की कमी कभी नहीं रही। चौधरी चरण सिंह को राम बताकर खुद को उनका हनुमान कहने वाले राजनारायण ही कुछ दिन बाद उन्हीं चरणसिंह को चेयरसिंह कहकर चिढ़ाने लगते हैं।
विदेशी घड़ियों के साथ एयरपोर्ट पर पकड़े जाने के बाद ओम प्रकाश चौटाला को बेटा मानने से इनकार कर देने वाले चौधरी देवीलाल ही मैहम कांड से पोते को बचाने के लिए पूरी वीपी सिंह सरकार को दांव पर लगा देते हैं। ऐसे में एकनाथ शिंदे अगर कह रहे हैं कि हम बाला साहेब के असल उत्तराधिकारी हैं। ये उद्धव ठाकरे होते कौन हैं, तो इसमें कोई अचरज की बात नहीं है।
भाजपा से अलग होने के बाद 26 नवंबर 2019 को उद्धव ठाकरे महाविकास अघाड़ी के नेता चुने गए। कांग्रेस-NCP-शिवसेना गठबंधन का नाम महाराष्ट्र विकास अघाड़ी रखा गया। 1 दिसंबर को उद्धव ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी।
दरअसल, गलत मूल्यों के साथ हुई सुलह, उस समाधि की तरह होती है, जिसमें आयु अकारथ चली जाती है। महाराष्ट्र में जो गठबंधन सरकार है, उसका गठन ही कुछ अवांछित सा है। जिस शिवसेना ने उम्रभर कांग्रेस और बाद में राष्ट्रवादी कांग्रेस का विरोध करके अपना अस्तित्व बचाए रखा, वही शिवसेना सत्ता की खातिर उसी कांग्रेस और राकांपा से हाथ मिला लेती है तो उसका अपना कुछ रह नहीं जाता। चूंकि भाजपा के साथ रहते उद्धव का मुख्यमंत्री बनना मुश्किल था, केवल इसलिए पार्टी के पूरे अस्तित्व को दांव पर लगा देना समझदारी नहीं थी। एक तरह से इसे राजनीतिक आत्महत्या ही कहा जा सकता है।
अटलजी और आडवाणी जब कह रहे थे कि बाबरी को गिराने में भाजपा का हाथ नहीं है, यह उग्र भीड़ का कारनामा है, तब एक बाला साहेब ही थे, जिन्होंने कहा था कि अगर बाबरी को गिराने में एक भी शिवसैनिक शामिल है तो इस पुण्यकर्म पर मुझे गर्व है। उन्हीं बाला साहेब की पार्टी गठबंधन की मजबूरी में हनुमान चालीसा पढ़ने वालों को जेल में ठूंसने लगे तो इसे अपनी ही जड़ें काटने का राजनीतिक उपक्रम ही कहा जाएगा।
अटलजी और आडवाणी ने जब कहा था कि बाबरी मस्जिद को गिराने में भाजपा का हाथ नहीं है, तब बाला साहेब ने कहा था कि अगर बाबरी को गिराने में एक भी शिवसैनिक शामिल है तो इस पुण्यकर्म पर मुझे गर्व है।
आज 40 विधायकों को सूरत ले जाकर एकनाथ शिंदे भी यही कह रहे हैं। उनकी एकमात्र शर्त वो हिंदुत्व है, जिसके कारण शिवसेना की बची-खुची सांसें चल रही हैं। साथ में यह भी कि हिन्दुत्ववादी पार्टी, यानी भाजपा का साथ। शिंदे कह रहे हैं कि वे यह सब भाजपा के बहकावे में नहीं, बल्कि शिवसेना के मूल स्वरूप को बचाने के लिए कर रहे हैं। यह जानना जरूरी है कि शिवसेना में एकनाथ ही अकेले मैदानी नेता भी हैं और बाला साहेब के बाद दूसरे बड़े शिवसैनिक धर्मवीर आनंद दिघे के सच्चे अनुयायी भी।
कांग्रेस और राकांपा का साथ देते-देते आखिर किसी दिन तो उन्हें जिल्लत महसूस होनी ही थी। सो हो गई। वैसे भी हिंदुत्व की राह पर चलना शेर की सवारी जैसा है। उतरते ही शेर खा जाता है। अब अवांछित गठजोड़ वाली सरकार का बचना मुश्किल है। एक-दो दिन में या तो शिंदे CM बनेंगे और भाजपा बाहर से समर्थन देगी या मिली जुली सेना-भाजपा सरकार बनेगी। इन दोनों विकल्पों पर बात नहीं बनी तो चुनाव तय हैं।